हो सकता है कि आपको शीर्षक थोडा अटपटा लगे । शिकायत करने का अधिकार? ये अधिकार तो व्यवस्था ने, हमारे संविधान ने हमें दिया ही हुआ है ना!
कौन होगा इस देश में जिसने आज तक कभी शिकायत न की हो! पुलिस के अत्याचारों और मनमानी के खिलाफ, दफ़तर में रिश्वत की बाट जोह रहे 'बाबू' के फ़ाइल आगे बढ़ाने में आनाकानी के खिलाफ, टूटी सड़कों, घर के बाजू में लगे कूड़े के ढेर और बहती नालियों के खिलाफ, अधिकारियों के बात न सुनने के खिलाफ, ठेकेदारों के सरकार द्वारा तय दरों से ज्यादा वसूलने के खिलाफ; हम सब शिकायत करते ही तो रहते हैं यार! फिर इसमें नया क्या है?
बात तो आप भी सही ही बोल रहे हो । पर मेरे अगले सवाल से आप के मन में चल रहे विचारों की बयार का रुख बदलना चाहिए । हमारी की गयी शिकायतों का कितने प्रतिशत अपने अंजाम तक पहुँचता है? कुछ बुद्धिजीवी वर्त्तमान व्यवस्था में आस्था प्रकट करते हुए रिश्वत का 'शॉर्टकट' अपनाकर अपना काम निकाल ले जाते होंगे, कुछ ऊंची पहुँच का फायदा उठाते हुए 'ऊपर' से फ़ोन करवा देते हैं । और बाकी? सहमत हैं क्या?
यहाँ बात 'छोटे' स्तर पर फैली अव्यवस्था और भृष्टाचार की है । आम आदमी तो सार्वजनिक दफ्तरों के काम-काज के तौर तरीकों और बात बात पर उनकी जेब टटोले जाने से ही सबसे ज्यादा बेहाल है । बड़े भृष्टाचार की बड़ी बड़ी बातें बड़े बड़े लोग जाने, बड़ी बड़ी सरकारें जाने!
दरअसल रिश्वत को आत्मसात कर चुके जमाने ने अगर अपनी आँखें बंद करके दिल पर भारी पत्थर रख लिया है तो इसकी एकमात्र वजह यही जर्जर हो चुकी व्यवस्था है जिसमें एक छोटे बाबू से लेकर लाल नीली बत्तियों में चलने वाले साहब जनाबों तक को सिर्फ 'ऊपर' जवाब देना पड़ता है; नीचे नहीं! और इस 'सांप सीढ़ी' रुपी व्यवस्था में सबसे नीचे वाले खाने में रखा है 'आम आदमी'! उसकी कौन सुनेगा? ऊपर तक पहुंचे कैसे? इतने सांप जो रास्ते में खड़े हैं ।
कौन होगा इस देश में जिसने आज तक कभी शिकायत न की हो! पुलिस के अत्याचारों और मनमानी के खिलाफ, दफ़तर में रिश्वत की बाट जोह रहे 'बाबू' के फ़ाइल आगे बढ़ाने में आनाकानी के खिलाफ, टूटी सड़कों, घर के बाजू में लगे कूड़े के ढेर और बहती नालियों के खिलाफ, अधिकारियों के बात न सुनने के खिलाफ, ठेकेदारों के सरकार द्वारा तय दरों से ज्यादा वसूलने के खिलाफ; हम सब शिकायत करते ही तो रहते हैं यार! फिर इसमें नया क्या है?
बात तो आप भी सही ही बोल रहे हो । पर मेरे अगले सवाल से आप के मन में चल रहे विचारों की बयार का रुख बदलना चाहिए । हमारी की गयी शिकायतों का कितने प्रतिशत अपने अंजाम तक पहुँचता है? कुछ बुद्धिजीवी वर्त्तमान व्यवस्था में आस्था प्रकट करते हुए रिश्वत का 'शॉर्टकट' अपनाकर अपना काम निकाल ले जाते होंगे, कुछ ऊंची पहुँच का फायदा उठाते हुए 'ऊपर' से फ़ोन करवा देते हैं । और बाकी? सहमत हैं क्या?
यहाँ बात 'छोटे' स्तर पर फैली अव्यवस्था और भृष्टाचार की है । आम आदमी तो सार्वजनिक दफ्तरों के काम-काज के तौर तरीकों और बात बात पर उनकी जेब टटोले जाने से ही सबसे ज्यादा बेहाल है । बड़े भृष्टाचार की बड़ी बड़ी बातें बड़े बड़े लोग जाने, बड़ी बड़ी सरकारें जाने!
दरअसल रिश्वत को आत्मसात कर चुके जमाने ने अगर अपनी आँखें बंद करके दिल पर भारी पत्थर रख लिया है तो इसकी एकमात्र वजह यही जर्जर हो चुकी व्यवस्था है जिसमें एक छोटे बाबू से लेकर लाल नीली बत्तियों में चलने वाले साहब जनाबों तक को सिर्फ 'ऊपर' जवाब देना पड़ता है; नीचे नहीं! और इस 'सांप सीढ़ी' रुपी व्यवस्था में सबसे नीचे वाले खाने में रखा है 'आम आदमी'! उसकी कौन सुनेगा? ऊपर तक पहुंचे कैसे? इतने सांप जो रास्ते में खड़े हैं ।